महामण्डलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज

प्रारम्भिक जीवन

स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज (19 सितंबर, 1932 - ) ज्योतिषपीठ बद्रिकाश्रम से संबद्ध आचार्यपीठ भानपुरा के जगद्‍गुरु शंकराचार्य (निवृत्त) हैं। 29 अप्रैल, 1960 अक्षय तृतीया के दिन स्वामीजी ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्‍गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। स्वामीजी ने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और अब केवल परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।

जीवनी

19 सितंबर, 1932 में आविर्भूत अंबिकाप्रसादजी पांडेय (सत्यमित्रानंदजी) बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी थे। उनके पिताश्री राष्ट्रपति सम्मानित शिक्षक शिवशंकरजी पांडेय ने उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने की प्रेरणा दी। महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज से उन्हें सत्यमित्र ब्रह्मचारी नाम मिला और साधना के विविध सोपान भी प्राप्त हुए। 29 अप्रैल, 1960 अक्षय तृतीया के दिन स्वामीजी ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्‍गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। प्रख्यात चिकित्सक स्व. डॉ. आरएम सोजतिया से निकटता के चलते भानपुरा क्षेत्र में उन्होंने अतिनिर्धन लोगों के उत्थान की दिशा में अनेक कार्य किए। हाल ही में सत्यमित्रानंदजी ने हरिद्वार में देश के शीर्ष संतों को भारत माता मंदिर में आमंत्रित किया था। यहाँ प्रमुख संतों ने सत्यमित्रानंदजी के जीवन पर प्रकाश डाला।

स्वामीजी ने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और अब केवल परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।

परिचय

समन्वय-पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, भारतमाता मन्दिर से प्रतिष्ठापक ब्रम्हानिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज आज स्वामी विवेकानन्द की अनुकृति के रूप में हमारे सामने हैं। २६ वर्ष की अल्प वय में ही शंकराचार्य-पद पर अभिषिक्त होने के बाद दीन-दुखी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजनों की सेवा और साम्प्रदयिक मतभेदों को दूर कर समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने के लिए सनातन धर्म के महानतम पद को उन्होंने तृणवत् त्याग दिया।
परम पूज्य चरण श्री स्वामी जी ने धर्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय-चेतना के समन्वित दर्शन एवं भारत की विभिन्नता में भी एकता की प्रतीति के लिए पतित-पावनी-भगवती-भागीरथी गंगा के तट पर सात मन्जिल वाले भारतमाता-मन्दिर बनवाया जो आपके मातृभूमि प्रेम व उत्सर्ग का अद्वितीय उदाहरण है। इस मन्दिर से देश-विदेश के लाखों लोग दर्शन कर आध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा सम्बन्धी विचारों की चेतना और प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। समन्वय भाव के प्रसार के लिए पूज्य श्री स्वामी जी विश्व के ६५ देशों की यात्रा अनेकश: कर चुके हैं।