महामण्डलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज (पूर्व नाम - ध्रुवनारायण दुबे)

परिचय

प्रारम्भिक जीवन

सन् 1955 में दिनांक 15 जून को भारतवर्ष में मध्यप्रदेश जिला छिंदवाड़ा (नगर छिंदवाड़ा) में जन्म हुआ। आपके पिता जी स्व. श्री सत्यनारायण दुबे पेशे से अधिवक्ता थे एवं माता जी स्व. श्रीमती राजेश्वरीदेवी दुबे धर्मनिष्ठ गृहणी थीं। आप अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान हैं।बचपन में ही आपको अपने माता-पिता का वियोग सहना पड़ा। माता-पिता से विमुख आपका लालन-पालन नाना-नानी जी ने किया।

आपने नाना-नानी के संरक्षण में प्राथमिक शिक्षा से लेकर हाई स्कूल तक अध्ययन अपने जन्म नगर छिंदवाड़ा में ही किया । 17 वर्ष की अल्पायु में ही आपको वैराग्य हो गया और आपने अपने स्वजनों को सदा-सदा के लिये छोड़कर भगवान् की भक्ति और ईश्वर को पाने के लिये संसार के माया-मोह को त्याग दिया और भगवान् श्रीराम की पावन तपस्थली चित्रकूट धाम के लिये प्रस्थान किया। आगे की पढ़ाई इन्होंने अपने ब्रह्मचर्य जीवन के गुरुदेव चित्रकूट के सुप्रसिद्ध तत्कालीन सन्त श्री स्वामी अव्यक्तबोधाश्रम जी महाराज के संरक्षण में किया। स्वामी श्री अव्यक्तबोधाश्रम जी महाराज परमवीतरागी-तपस्वी एवं आध्यात्मिक साधक संत थे। चित्रकूट और उसके आप-पास के क्षेत्र में "स्वामी परशुराम जी" के नाम से जाने जाते थे। इन्हीं से ध्रुवनारायण दुबे (जिनका वर्तमान में नाम स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि है) ने ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली। शिव पंचाक्षर मंत्र एवं गायत्री मंत्र की दीक्षा भी ग्रहण किया। तत्पश्चात् अपने विधिवत् नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेकर गैरिक वस्त्र धारण किया। स्वयंपाकी नैष्ठिक ब्रह्मचारी के रूप में दैनिक तपश्चर्या-साधना एवं गायत्री अनुष्ठान और अपनी गुरुभक्ति व सेवा के कारण आप न केवल अपने गुरु के विश्वास भाजन हुये बल्कि भक्तमण्डली तथा क्षेत्रीयजनों के मध्य भी अत्यन्त लोकप्रिय हुये। गुरुजी इन्हें "ब्रह्मचारी ध्रुवनारायण स्वरूप" इस नाम से ही पुकारते थे।

ब्रह्मचारी ध्रुवनारायण

अपने ब्रह्मचारी जीवन में "ब्रह्मचारी ध्रुवनारायण" बड़े मेधावी, अध्ययनशील, शिव व श्री राम भक्ति में संलग्न तथा शिव पंचाक्षर मंत्र का निरन्तर जाप एवं गायत्री अनुष्ठान पूर्वक गायत्री मंत्र की साधना - सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन आपके ब्रह्मचर्य जीवन की नित्य की सहज प्रवृत्ति रही है। गीता-रामायण-महाभारत उपनिषद् आपके रुचिकर ग्रन्थ रहे हैं।

विद्याध्ययन

संस्कृत भाषा के प्रति आकर्षण और भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन में अभिरुचि के कारण आपने संस्कृत भाषा के माध्यम से गुरुदेव से आज्ञा लेकर पुनः विद्याध्ययन प्रारम्भ किया और उत्तर प्रदेश के "सीतापुर" में मोहनदास संस्कृत विद्यालय (गोपालघाट) से प्रथमा कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। इसके बाद आप ऋषिकेश पढ़ने चले गये। वहाँ स्वर्गाश्रम क्षेत्र में गंगा के तट पर स्थित "परमार्थ-निकेतन" में दैवी सम्पद् अध्यात्म संस्कृत महाविद्यालय में विरक्त सन्त छात्रावास में रहकर पूज्य महामण्डलेश्वर श्री स्वामी असंगानन्द सरस्वती जी महाराज के संरक्षण व मार्गदर्शन में मध्यमा कक्षा तक संस्कृत व्याकरण तथा शांकरवेदान्त विषय से शास्त्री तक की शिक्षा ग्रहण किया। भारतीय पारम्परिक शास्त्रों का पारम्परिक पद्धति से उपाधियों की अपेक्षा न रखते हुए (डिग्रियों की चाहत न रखकर) आपने गहन अध्ययन किया साथ ही वर्तमान संदर्भ में उन शास्त्रीय तत्त्वों की निरन्तर व्याख्या की है और करने जा रहे हैं।

धर्मजागरण-सेवाकार्य एवं महापुरुषों का सान्निध्य

पूर्व में ब्रह्मचारी ध्रुवनारायण के नाम से आप हिन्दुत्त्व व भारतीय संस्कृति के प्रखर प्रचारक एवं मुखरवक्ता के रूप में मध्यप्रदेश, मध्य भारत, एवं छत्तीसगढ़ प्रान्त में प्रख्यात हुए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं हिन्दुत्त्व की विचारधारा से जुड़े रहने के कारण आप "श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन" के समय विश्व हिन्दु परिषद् के कार्य से संलग्न रहकर वनवासी क्षेत्रों में धर्म जागरणपूर्वक जनजागरण एवं गो-वंश रक्षा जैसे पुनीत कार्य में सक्रिय और समर्पित रहे। आपके प्रयास एवं व्यापक जनसहयोग से, "जिन अशिक्षित, निर्धन और बेसहारा आदिवासियों ने अज्ञानतावश हिन्दु धर्म छोडकर ईसाई धर्म अपना लिया था" उन्हें फिर से हिन्दु धर्म में सम्मान पूर्वक वापस लाकर उनका परावर्तन संस्कार आपने कराया। हिन्दुत्त्व के मुखरवक्ता और प्रखर प्रचारक के रूप में वनवासी क्षेत्रों में आज भी आप प्रभावशाली महात्मा के रूप में जाने जाते हैं। आपकी अनुशासन और प्रशासन क्षमता का अनुभव आपके द्वारा आयोजित किये वृहद् आयोजनों में स्पष्ट रूप से किया गया है। ब्रह्मचारी जीवन में आपने वनवासी क्षेत्र में बड़े-बड़े धार्मिक यज्ञ-अनुष्ठान आयोजित करवाये तथा समाज को सन्मार्ग पर चलने की सामाजिक प्रेरणा आयोजनों के माध्यम से दिये और आज भी दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के डिन्डोरी जिले के कोसमडीह तथा बरगांव ग्रामीण क्षेत्र में आपके सत्प्रयासों और आर्थिक सहयोग से मन्दिरों का निर्माण हुआ है। आपने बरगांव में गोशाला, वनवासी छात्रावास एवं श्री माधवेश्वर बड़ादेव भगवान् मंदिर की आधारशिला रखकर इस जनहितकारी कार्य को मूर्तरूप दिया है तथा आज भी इन स्थानों की चिन्ता करते हैं। वर्ष में एक बार आयोजित होने वाले कल्याण मेला में आपका भरपूर मार्गदर्शन एवं योगदान रहता है। आपके वृहद् आयोजनों में परम विरक्त वीतरागी सन्त वामदेव जी महाराज (वर्तमान में ब्रह्मलीन) गो रक्षा के लिये समर्पित सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी (वर्तमान में ब्रह्मलीन) ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी विष्णुदेवानन्द सरस्वती (वर्तमान में ब्रह्मलीन) गोरक्षपीठाधीश्वर पूज्य महन्त श्री अवेद्यनाथ जी महाराज, निवृत्त शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर स्वामी श्री सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज, पूज्य स्वामी श्री चिन्मयानन्द सरस्वती जी महाराज सहित अयोध्या, वाराणसी, वृन्दावन, नैमिषारण्य, हरिद्वार आदि तीर्थ स्थलों के अनेक ख्यातिलब्ध सन्त महापुरुषों का आगमन एवं उन सभी का आशीर्वाद तथा क्षेत्र की जनता को धार्मिक, आध्यात्मिक तथा समाजिक उद्बोधन व मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

संन्यास दीक्षा

सन् 1995 में ब्रह्मचर्य जीवन के मार्गदर्शक पूज्य सदगुरुदेव श्री स्वामी अव्यक्तबोधाश्रम जी महाराज के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद आपके मन में संन्यास की तीव्र इच्छा जाग्रत हो जाने के कारण तथा निरन्तर सम्पर्क होने तथा पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के कारण आपने हरिद्वार स्थित भारतमाता मन्दिर, के कल्पक, संस्थापक व परमाध्यक्ष निवृत्त शंकराचार्य महामण्डलेश्वर श्री स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज से संन्यास दीक्षा हेतु विनम्र प्रार्थना किया, पूज्य स्वामी जी महाराज ने सन् 1998 में हरिद्वार में आयोजित पूर्ण कुम्भ के अवसर पर 14 अप्रेल को ब्रह्मचारी ध्रुवनारायण को विधिवत् संन्यास दीक्षा देकर इनका नामकरण किया "स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि"। संन्यास दीक्षा ग्रहण कर स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज पूज्य गुरुदेव जी की आज्ञा से जबलपुर (म.प्र.) स्थित "समन्वय सेवा केन्द्र" आश्रम (छोटी लाईन रेल्वे फाटक के सामने) का सुचारू एवं कुशल संचालन कर रहे हैं तथा जबलपुर और मध्यप्रदेश स्थित समस्त समन्वय परिवारों की धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं सेवाभावी लोकोपकारक रचनात्मक गतिविधियों का मार्गदर्शन पूर्वक साथ ही वनवासी-आदिवासी अंचलों में धर्मजागरण पूर्वक सेवा कार्यों का संचालन कर रहे हैं। जबलपुर में आपके संकल्प और प्रयत्न से "श्री अमृतेश्वर महादेव मंदिर" तथा समन्वय गो-शाला का निर्माण एवं वयोवृद्ध व रुग्ण संन्यासी चिकित्सा सेवा प्रकल्प स्थापित हुआ है। वर्तमान में स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज "समन्वय सेवा ट्रस्ट हरिद्वार (उत्तराखण्ड)" के ट्रस्टी तथा समन्वय परिवार ट्रस्ट जबलपुर के अध्यक्ष पद पर कार्य कर रहे हैं।

महामण्डलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि

सद्गुरुदेव पूज्य स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज के अत्यन्त विश्वासी एवं कृपापात्र संन्यासी शिष्य स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज को अपने गुरुदेव की कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव तब हुआ जब अभी हाल ही में हरिद्वार में सम्पन्न वर्तमान सदी के प्रथम पूर्ण महाकुम्भ के सुअवसर पर दिनांक 21 मार्च 2010 को आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य की दशनाम संन्यास परम्परा में तपोनिधि श्री निरंजनी अखाड़ा मायापुरी (हरिद्वार) के पंचपरमेश्वर द्वारा स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि का महामण्डलेश्वर पद पर मस्तकाभिषेक पूर्वक पट्टाभिषेक सम्पन्न हुआ, दशनाम संन्यास परम्परा में अध्यात्म क्षेत्र की "महामण्डलेश्वर" इस महत्त्वपूर्ण उपाधि से अलंकृत उन्हें पूज्य गुरुदेव स्वामी श्री सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज द्वारा स्थापित "समन्वय श्री पारदेश्वर पीठम्", मुर्धवा, रेनूकूट, जिला-सोनभद्र (उत्तर प्रदेश) इस पीठ पर पीठाधीश नियुक्त किया गया है, जिसका अनुमोदन पंच परमेश्वर तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा के महंतों, सचिवों एवं पूज्य महामण्डलेश्वरों ने पट्टाभिषेक के अवसर पर किया। तेरह (13) अखाड़ों के प्रतिनिधियों (महन्तों), महामण्डलेश्वरों तथा देश और विदेशों में स्थित समन्वय परिवारों के प्रतिनिधियों ने शाल ओढ़ाकर समन्वय पारदेश्वर पीठाधीश, महामण्डलेश्वर श्री स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज का सम्मान किया

अन्य विशेषतायें

महामण्डलेश्वर श्री स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी महाराज रामायण, गीता, महाभारत तथा उपनिषदों के माध्यम से आध्यात्मिक प्रवचन करते हैं तथा समाज में सदाचार, सद्विचार, सद्गुणों, सेवा, धर्म आधारित परम्परागत भारतीय जीवन शैली का प्रचार-प्रसार कर भारतीय संस्कृति के उन्नयन हेतु प्रयासरत हैं। वर्ष 2009-2010 में भारतवर्ष में कुरुक्षेत्र से लेकर दिल्ली तक आयोजित दिनांक 28 सितम्बर 2009 से 30 जनवरी 2010 तक) विश्वमंगल गो-ग्राम यात्रा में स्वामी अखिलेश्वरानन्द गिरि जी ने देश के 10 राज्यों की व्यापक यात्रा कर स्थान-स्थान पर आयोजित "गो संकल्प सभाओं" में भारतीय गाय और गो-वंश के महत्त्व को रेखांकित कर जन-मन को सम्मोहित कर ख्याति अर्जित की । गाय और भारतीय गो-वंश पर आधारित उनके प्रवचनों की सर्वत्र सराहना की गई । प्रपंच रहित निश्छल जीवन, सरल व्यक्तित्त्व, साधुता से परिपूर्ण सरल बाल-सुलभ स्वभाव, सादा जीवन, सेवाभाव, उदारशीलता, सबके प्रति प्रेम, भेदभाव रहित व्यवहार, दीनदुःखियों के प्रति संवेदनशीलता, सबके प्रति उदार किन्तु स्वयं के प्रति कठोर, भारतीय मान्य परम्पराओं एवं संस्कृति के प्रति आग्रही, नैष्ठिक ब्रह्मचर्य सम्पन्न महामण्डलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानन्द जी गिरि के व्यक्तित्त्व की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कर पाना कठिन है, फिर भी इन तथ्यों से उनके विराट व्यक्तित्त्व का दिग्दर्शन प्राप्त किया जा सकता है।